आपके लिए कहा जाता है कि आप गंभीर साहित्यकार की श्रेणी

मैं खुद कहता हूं कि मैं लिटरेचर नहीं लिखता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरी किताबें आम बच्चे पढ़ें. सिंपल किताबें हों, तभी तो बच्चे पढ़ते हैं इतने सारे. मैं चाहता हूं कि ज़ायादा लोग पढ़ें और वही मेरा उद्देश्य रहा है.
अरविंद अडिगा को, अरुंधति रॉय को बुकर प्राइज़ मिला है, कभी आप भी वहां तक पहुंचने की सोचते हैं?
सबको सब कुछ नहीं मिलता है ज़िंदगी में. मिले तो अच्छा है, लेकिन मुझे लगता नहीं कि मुझे मिल सकता है. शायद मैं इतना अच्छा लिखता भी नहीं. लेकिन मुझे भी अपनी तरह का काम करने का हक़ है. अवॉर्ड नहीं जीते तो क्या, दिल तो जीत लिए. परसों एमेज़ॉन ने किताबों की डिलीवरी करवाई मुझसे. मैं खुद जाकर डिलीवर कर रहा था जिन्होंने प्री-ऑर्डर की है मेरी किताब.
मैंने एक स्लम में जाकर भी डिलीवर की अपनी किताब. धारावी में रहने वाली एक लड़की ने मेरी किताब ऑर्डर की थी. वो पल मेरे लिए बुकर प्राइज़ से बड़ा था कि एक स्लम में रहने वाली लड़की को मेरी किताब पसंद आ गई बजाय कि लंदन में रहने वाले किसी को आई और मुझे अवॉर्ड दे दिया.
आप हाशिए के लोगों को अपनी किताब पढ़ाना तो चाहते हैं, लेकिन वे कभी मुख्य किरदार नहीं होते हैं आपके उपन्यासों में.
मैं लिखूंगा. उनके संघर्षों की कहानी तो और भी ज़्यादा मज़बूत है.
आप काफ़ी एक्टिव हैं राजनीति को लेकर, तो वोट देते समय क्या ध्यान में रखते हैं?
जिस यूथ ने मुझे बनाया है, मैं उनको ध्यान में रखता हूं. उनके लिए अगर जॉब्स बन रहे हैं, उनके लिए आर्थिक विकास हो रहा है, उनके लिए भारत बेहतर हो रहा है तो मैं वो दिमाग़ में रखता हूं. ज़रूरी नहीं कि जब आप वोट देने जाएं तो आपके पास आदर्श विकल्प हो. जो 4-5 विकल्प मौजूद होते हैं उन्हीं में से चुनना होता है. मेरा वोट फ़िक्स नहीं है, बदलता रहता है. जो वोट बैंक पॉलिटिक्स कम करे, आइडेंटिटी पॉलिटिक्स कम करे, उसको देता हूं वोट. कोई ऐसा नहीं है जो नहीं करता हो. आप जीत ही नहीं सकते भारत में बिना ऐसा किये.
क्या मौजूदा सरकार वो कर पा रही है जो उसे करना चाहिए?
सरकार कर तो नहीं पा रही, लेकिन कोशिश कर रही है. कर तो कोई नहीं पाता इस देश में.अच्छे लोग नहीं हैं ना. अच्छे दिन लाने के लिए अच्छे लोग भी चाहिए. यहां पर हर किसी का अपना एजेंडा है. हर कोई अपना फ़ायदा सोच कर आता है. देश के तौर पर हम अपने वैल्यू सिस्टम को ठीक नहीं करेंगे तो फिर ये नहीं बदलेगा, जब तक लोग हिंदू-मुस्लिम पर रिस्पांड करेंगे वो लोग हिंदू-मुस्लिम करेंगे.
ऐसा है नहीं. मैंने इस सरकार की आलोचना भी की है और कई बार तारीफ़ भी की है. बात ये है कि मैं सिर्फ़ आलोचना करने में विश्वास नहीं रखता. मैंने लिखा था जब जीएसटी ज़्यादा था. पेट्रोल के दामों पर लिखा. रफाल डील पर सवाल उठाए हैं, मुझे नहीं लगता कि वो डील ठीक से हुई है. जो बात है वो मैं कह रहा हूं, बस चिल्ला-चिल्ला कर गालियां नहीं दे रहा हूं.
ट्रोलिंग को लेकर क्या कहेंगे? क्या आपको लगता है कि राजनीतिक पार्टियों के आईटी सेल ट्रोलिंग को बढ़ावा देते हैं?
आप सिलेब्रिटी हों और पॉलिटिक्स की बात करें तो दस गुना ट्रोलिंग होती है. वो इसलिए कि सोशल मीडिया सेल एक्टिव हैं. वहां लोगों को रखा गया है कि अपनी पार्टी के विपक्ष को गिराना है. एक तरह से वे पालतू ट्रोल्स हैं. ट्रोल्स कुछ कहते हैं उससे फ़र्क नहीं पड़ता है. हले थोड़ा कम था. लेकिन उसके 2-3 कारण हैं. एक हो सकता है कि बीजेपी इसे बढ़ावा देती है. दूसरा सोशल मीडिया. शोर ही ज़्यादा मच रहा है. हर बात पर शोर हो रहा है. एंड्राएड और एप्पल पर भी शोर मच रहा है. अब लोगों को चैनल मिल गया है. पूरी दुनिया में ही पोलराइज़ेशन बढ़ रहा है. जहां बीजेपी नहीं है वहां भी.
नरेंद्र मोदी वापस आ पाएंगे 2019 में?
चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी करना मुश्किल है, लेकिन नरेंद्र मोदी आ तो जाएंगे. चाहे थोड़ी कम सीटें आएंगी, लेकिन आ तो जाएंगी.
फ़ेक न्यूज़ को लेकर क्या कहेंगे?
मेरे बारे में ही इतना फ़ेक न्यूज़ चलता है. मेरी फ़ोटो लगा कर कोई बात लिख देते हैं हिंदू-मुस्लिम पर और कहते हैं कि चेतन भगत ने कहा है. बार-बार मुझे सफ़ाई देनी पड़ती है. मेरे फ़ेक अकाउंट बनाए हुए हैं लोगों ने. कुछ भी बोलते रहते हैं और मीडिया में स्टोरी भी आ जाती है.
मैं देख लेता हूं कि बीबीसी पर है कि नहीं. मुझे लगता है कि बीबीसी एफ़र्ट करती है कि 2-3 जगह से ख़बर कन्फर्म हो.
भारतीय समाज महिलाओं को लेकर क्या सोच रखता है?
थोड़ा बदल रहा है. लेकिन फिर महिलाओं के लिए नियम ज़्यादा हैं. महिलाओं को ज़्यादा जज किया जाता है. उनके लिए ऐसा है कि करियर चाहिए ठीक है, लेकिन घर में फुलके तो बनाने पड़ेंगे. गर्म फुलकों के चक्कर में हम अपना जीडीपी गंवा रहे हैं.

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