(रिसर्च और ग्राफ़िक्स - शादाब नाज़्मी, पुनीत कुमार)

साल 2017 में भारत पर यूनीसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पैदा होने के पहले महीने में बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजहें थीं पैदा होने के व़क्त होने वाली कॉम्प्लिकेशन (जटिलताएं) और समय से पहले प्रसव.
ये कोई महामारी नहीं, बल्कि ऐसी वजहें हैं जिनसे मौत ना होतीं अगर मां और बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पातीं.
इसी मक़सद के साथ साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का गठन किया गया ताकि गांवों के अलावा आठ राज्यों में हालात सुधारने के लिए क़दम उठाए जाएं.
इन एम्पावर्ड ग्रुप ऑफ़ स्टेट्स (ईएजी) में बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तरांचल और उत्तर प्रदेश शामिल हैं.
जिन इलाक़ों में अस्पताल में प्रसव, सिज़ेरियन ऑपरेशन और ऐम्बुलेंस सेवाएं कम थीं वहां ऐसी सुविधाओं को लाने की योजनाएं बनाई गईं.
हाल में जननी सुरक्षा योजना और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम भी लाए गए हैं, जिनके तहत सरकारी स्वास्थ्य संस्थान में प्रसव के लिए जानेवाली गर्भवती महिलाओं को धन राशि, मुफ्त चेक-अप, प्रसव और एक साल तक नवजात की बीमारी का ख़र्च दिए जाने का प्रावधान है.
प्रसव के दौरान मां और बच्चे की जान बचाने के लिए प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी, स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल में डिलिवरी करवाना बेहद ज़रूरी माना जाता है.
स्वास्थ्यकर्मियों की मौजूदगी के चलते प्रसव के दौरान होने वाली जटिलताओं से तो निपटा जा ही सकता है साथ ही नवजात में बीमारियों के लक्षण जल्दी पहचाने जा सकते हैं.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव मनोज झालानी कहते हैं, "भारत ने इस एक पैमाने पर बहुत बेहतरी देखी है, पिछले 12 सालों में इंस्टिट्यूश्नल बर्थ की दर दोगुनी हो गई है."
देश भर में हुए इस बदलाव के बावजूद राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफ़एचएस) 2015-16 बताता है कि बिहार (63.8%) अब भी सबसे बुरे राज्यों में से एक हैं.
केरल (99.9%) और तमिलनाडु (99%) में लगभग हर बच्चा किसी संस्थागत स्वास्थ्य सुविधा में पैदा हुआ.
मनोज झालानी मानते हैं कि, "कुछ हिस्सों में अब भी कुछ अनिच्छा दिखती है" पर साथ ही कहते हैं, "अब हम बच्चों के पैदा होने से जुड़ी सभी सुविधाओं को बेहतर करना चाहते हैं, लक्ष्य योजना के ज़रिए हम प्रसव को मां और बच्चे के लिए एक ख़ुशनुमा अनुभव बनाना चाहते हैं".
युनिसेफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर बच्चा पैदा होने के बाद एक महीने तक जीवित रहता है तो पाँच साल की आयु तक पहुँचने से पहले निमोनिया और डायरिया से उसे सबसे ज़्यादा ख़तरा रहता है.
भारत में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की वजहें कुपोषण, पैदाइश के व़क्त कम वज़न, स्तनपान को जल्दी रोक देना, चेचक का टीकाकरण ना होना, प्रदूषण और भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में रहना है.
साल 2017 में भारत सरकार ने ऐलान किया कि छोटे बच्चों में निमोनिया की रोकथाम के लिए एक नई वैक्सीन लाई जा रही है.
ये टीकाकरण अभियान को और व्यापक बनाने के लिए लाए गए मिशन इंद्रधनुष का हिस्सा है.
इसका असर तो आनेवाले दिनों में ही पता चलेगा पर फ़िलहाल देश के अलग-अलग इलाकों में टीकाकरण की सफलता अलग रही है.
एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश (38.2%) और असम (47.1%) का पंजाब (89.1%) और केरल (82.1%) से काफ़ी कम है.
दूसरी जानलेवा बीमारी डायरिया की रोकधाम के लिए वैक्सीन के अलावा सफ़ाई की सुविधाएं बेहद ज़रूरी हैं.
एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक़ झारखंड (24%), बिहार (25%) ओडिशा (29%) और मध्य प्रदेश (33%) जैसे कम सफ़ाई सुविधाओं वाले राज्यों में ही डायरिया से मरनेवाले पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की दर ज़्यादा है.
बेहतर सफ़ाई सुविधाओं का मतलब है ऐसा घर जिसके पास अपना शौचालय हो, जो किसी सीवर या गहरे गड्ढे के साथ जुड़ा हो और किसी और घर के साथ मिलकर इस्तेमाल ना किया जाता हो.
पिछले पांच सालों में सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के ज़रिए घरों में शौचालय बनाने में काफ़ी ज़ोर लगाया है.
सरकार का दावा है कि नौ करोड़ शौचालय बनाने के बाद अब 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लोग खुले में शौच के लिए नहीं जाते हैं.
प्रोफ़ेसर मावलंकर के मुताबिक़ शौचालयों के अलावा स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता पर काम करने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, "पीने के साफ़ पानी तक पहुंच और जानकारी, शरीर में ज़रूरी न्यूट्रिएंट्स के लिए ओआरएस घोल का इस्तेमाल, घाने को साफ़ रखने के लिए मक्खियों से बचाना वगैरह पर चेतना बनाने की ज़रूरत है."
दक्षिणी राज्य स्वास्थ्य-संबंधी संस्थाओं, टीकाकरण और सफ़ाई सुविधाओं में अव्वल हैं. साथ ही यहां शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का स्तर भी ऊंचा है.
ये सभी मापदंड बच्चों की कम उम्र में मौत से बचाव करते हैं और बढ़ी मृत्यु दर से जूझ रहे ईएजी राज्यों के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं.

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